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सोम॑ रार॒न्धि नो॑ हृ॒दि गावो॒ न यव॑से॒ष्वा। मर्य॑ इव॒ स्व ओ॒क्ये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

soma rārandhi no hṛdi gāvo na yavaseṣv ā | marya iva sva okye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सोम॑। रा॒र॒न्धि। नः॒। हृ॒दि। गावः॑। न। यव॑सेषु। आ। मर्यः॑ऽइव स्वे। ओ॒क्ये॑ ॥ १.९१.१३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:91» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) परमेश्वर ! जिस कारण आप (नः) हम लोगों के (हृदि) हृदय में (न) जैसे (यवसेषु) खाने योग्य घास आदि पदार्थों में (गावः) गौ रमती हैं वैसे वा जैसे (स्वे) अपने (ओक्ये) घर में (मर्य्यइव) मनुष्य विरमता है वैसे (आ) अच्छे प्रकार (रारन्धि) रमिये वा ओषधिसमूह उक्त प्रकार से रमे, इससे सबके सेवने योग्य आप वा यह है ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और दो उपमालङ्कार हैं। हे जगदीश्वर ! जैसे प्रत्यक्षता से गौ और मनुष्य अपने भोजन करने योग्य पदार्थ वा स्थान में उत्साहपूर्वक अपना वर्त्ताव वर्त्तते हैं, वैसे हम लोगों के आत्मा में प्रकाशित हूजिये। जैसे पृथिवी आदि कार्य्य पदार्थों में प्रत्यक्ष सूर्य्य की किरणें प्रकाशमान होती हैं, वैसे हम लोगों के आत्मा में प्रकाशमान हूजिये। इस मन्त्र में असंभव होने से विद्वान् का ग्रहण नहीं किया ॥ १३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे सोम यतस्त्वमयं च नो हृदि नेव यवसेषु गावो स्व ओक्ये मर्यइवारारन्धि समन्ताद्रमस्व रमते वा तस्मात्सर्वैः सदा सेवनीयः ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) (रारन्धि) रमस्व रमेत वा। अत्र रमधातोर्लोटि मध्यमैकवचने बहुलं छन्दसीति शपः स्थाने श्लुः। व्यत्ययेन परस्मैपदं वाच्छन्दसीति हेः पित्वादङितश्चेति धिः। (न) अस्माकम् (हृदये) (गावः) धेनवः (न) इव (यवसेषु) भक्षणीयेषु घासेषु (आ) समन्तात् (मर्यइव) यथा मनुष्यः (स्वे) स्वकीये (ओक्ये) गृहे ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषोपमालङ्काराः। हे जगदीश्वर यथा प्रत्यक्षतया गावो मनुष्याश्च स्वकीये भोक्तव्ये पदार्थे स्थाने वा क्रीडन्ति तथैवाऽस्माकमात्मनि प्रकाशितो भवेः। यथा पृथिव्यादिषु कार्य्यद्रव्येषु प्रत्यक्षाः किरणा राजन्ते तथैवास्माकमात्मनि राजस्व। अत्रासंभवत्वाद्विद्वान्न गृह्यते ॥ १३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व दोन उपमालंकार आहेत, हे जगदीश्वरा! जसे प्रत्यक्ष गाय व मनुष्य स्वतःच्या भोजन पदार्थात किंवा स्वगृही आनंदाने रमतात तसे आमच्या आत्म्यात प्रकट व्हा. जसे पृथ्वी इत्यादी पदार्थांवर प्रत्यक्ष सूर्याची किरणे प्रकाशमान होतात तसे आमच्या आत्म्यात प्रकाशमान व्हा. या मंत्रात अशक्य असल्यामुळे विद्वानाचे ग्रहण केलेले नाही. ॥ १३ ॥